मन के विचार
हार कैसे मानलू मैं
अपने पिता से जो सीखा है
उम्मीद का फूल कैसे तोड़ दू मैं
अपने हाथो से जो सीचा है
हंसना कैसे भूलूं मैं
अपनी माता से जो सीखा है।
ज़िंदगी है इसलिए तो सता रही है
मौत तो आनी है लेकिन वो कहा कुछ बता रही है
दिन में चांद देखने की तमन्ना होती है
और चांद आते ही सूरज की कामना
फस चुका हु अपने ही विचारो में
इनसे बाहर तो आना है लेकिन इनसे दूर भी नही जाना है।
-आपसे फिर मिलूंगा मेरे अगले ब्लॉग में।
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